– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
फिल्म “महावतार नरसिम्हा” 25 जुलाई को रिलीज हुई है। इस एनिमेटेड फिल्म ने भारतीय सिनेमा के उन तमाम समीकरणों को तोड़कर रख दिया है जो अब तक स्टार पावर, मार्केटिंग बजट और अर्बन ट्रेंड्स पर टिके थे। मात्र 15 करोड़ रुपये की लागत में बनी यह फिल्म 12 दिनों में ही 100 करोड़ क्लब में शामिल हो गई, और वो भी उस वक्त जब सिनेमाघरों में एक हाई बजट स्टारकास्ट वाली फिल्म ‘सैयारा’ का दबदबा बना हुआ था। लेकिन महावतार नरसिम्हा की सफलता केवल एक बॉक्स ऑफिस की उपलब्धि नहीं है; वस्तुत: यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक भी बनकर आज सभी के सामने आई है। यह फिल्म बताती है कि भारतीय पौराणिक कथाएं आज भी न केवल दर्शकों के दिलों को छूती हैं, बल्कि समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित करने की शक्ति रखती हैं। वहीं, ये कथाएं सिर्फ कहानियां नहीं हैं, समाज जीवन में सदैव आदर्श स्थापित रहें, इसके लिए इन कथाओं का विमर्श हमेशा भारतीय समाज में जीवंत है।
कहना होगा कि भारत की सभ्यता एक कथा-प्रधान संस्कृति रही है। हमारे महाकाव्य, पुराण और उपाख्यान सदियों से मौखिक और लिखित परंपरा के जरिए पीढ़ियों तक संप्रेषित होते रहे हैं। जब इन कहानियों को सिनेमा जैसी आधुनिक और व्यापक पहुंच वाली विधा में उतारा जाता है, तो उनका प्रभाव अनेकगुना हो जाता है। “महावतार नरसिम्हा” उसी परंपरा की एक सशक्त कड़ी है, जिसने न केवल बाल दर्शकों को आकर्षित किया, बल्कि वयस्कों और युवाओं को भी अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा और उसमें लोक के सहजीवन के प्रति भी ओर उन्मुख किया है।
इस फिल्म में केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि उस आध्यात्मिक ऊर्जा और सांस्कृतिक स्मृति का समावेश है जो भारत की आत्मा में बसी है। फिल्म में “नरसिंह अवतार” की कथा केवल एक धार्मिक आख्यान के रूप में नहीं प्रस्तुत की गई, बल्कि उसे आज के समय की चुनौतियों से जोड़ने की चेष्टा की गई है। ये अन्याय, अहंकार और अत्याचार के विरुद्ध न्याय, धर्म और सत्य की विजय है।
वस्तुत: “महावतार नरसिम्हा” की सफलता यह दर्शाती है कि दर्शकों की आत्मा से निकला प्रचार, बड़े बजट वाले मीडिया कैंपेन से भी अधिक असरदार होता है। फिल्म की शुरुआत अपेक्षाकृत धीमी रही, लेकिन इसके नैतिक और आध्यात्मिक संदेश ने दर्शकों को इतना गहराई से जोड़ा कि वर्ड ऑफ माउथ ने इसे एक सांस्कृतिक आंदोलन में बदल दिया। यह दर्शाता है कि भारतीय जनमानस अब ऐसी फिल्मों के लिए तैयार है जो न केवल मनोरंजन दें, बल्कि उन्हें उनके सांस्कृतिक अस्तित्व से भी जोड़ें। इस फिल्म ने यह मिथक तोड़ दिया है कि पौराणिक विषयों पर बनी फिल्में केवल सीमित वर्ग को ही आकर्षित कर सकती हैं।
“नरसिंह अवतार” की कथा केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि वह एक कालातीत संदेश देती है। फिल्म का साफ संदेश है कि जब ‘अधर्म’ अपने चरम पर होता है, तब ‘धर्म’ स्वयं किसी न किसी रूप में अवतरित होकर संतुलन स्थापित करता है। ‘हिरण्यकश्यप’ के अत्याचार और भक्त ‘प्रह्लाद’ की श्रद्धा, भगवान नरसिंह के रूप में उस शक्ति की उद्घोषणा करती है जो ‘सत्यमेव जयते’ के सिद्धांत को व्यवहार में लाती है।
“महावतार नरसिम्हा” फिल्म का यही वह केंद्रीय भाव है, जो आज के संदर्भ में विशेष रूप से अत्यधिक प्रासंगिक है। कहना होगा कि जब समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो, जब सत्ता अहंकार में डूबे, जब निर्दोष की आस्था को चुनौती मिले, तब प्रकृति को या कहें सृष्टी को ‘अवतार’ की आवश्यकता होती है। यह अवतार किसी व्यक्ति विशेष के रूप में नहीं, बल्कि ‘जागृत चेतना’ के रूप में आता है, फिर वह चेतना किसी भी रूप में हो सकती है। यही इस फिल्म का सार तत्व है।
इस फिल्म की अपार सफलता ने न केवल भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी है, बल्कि होम्बले फिल्म्स ने पौराणिक कथाओं पर आधारित एक महा-श्रृंखला की भी घोषणा की है, जिसमें महावतार परशुराम (2027), महावतार रघुनंदन (2029), महावतार द्वारकाधीश (2031), महावतार गोकुलानंद (2033) और महावतार कल्कि (2035) जैसे आगामी शीर्षक शामिल हैं। इससे स्पष्ट है कि भारतीय पौराणिक साहित्य अब केवल ग्रंथों और मंदिरों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वह सिनेमाई माध्यम से अगली पीढ़ी की चेतना में उतरेगा। इस दिशा में यह पहला ठोस और दूरदर्शी कदम है।
एक अच्छी कथा वही होती है जो श्रोताओं या दर्शकों के हृदय को छू जाए। न सिर्फ संवादों या दृश्यों से, बल्कि अपने मूल विचार से भी अपना प्रभाव छोड़े। “महावतार नरसिम्हा” में यह विचार स्पष्ट है कि ईश्वर कहीं बाहर नहीं, भीतर है। अन्याय से लड़ने के लिए ‘ईश्वरीय शक्ति’ बाहर से नहीं आती, वह प्रत्येक व्यक्ति (प्रह्लाद) के अंदर विद्यमान है। सिर्फ उसे अनुभूत करने की जरूरत है। इस फिल्म ने केवल एक पौराणिक कथा को दोहराया ही नहीं, बल्कि उसे आज की पीढ़ी के लिए पुनर्परिभाषित किया है। इसकी एनिमेशन क्वालिटी, बैकग्राउंड स्कोर, और संवादी संरचना ने इसे एक समग्रता के साथ परम आनन्दायक अनुभूति हो, ऐसा अनुभव बना दिया है, जिसमें कि मन-मस्तिष्क में देर तक विचारों की शांति बनी रहती है।
महावतार नरसिम्हा कोई साधारण फिल्म नहीं है; यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रस्तावना है। यह बताती है कि भारतीय पौराणिक कथाएं आज भी जीवंत हैं, वे केवल स्मृति की वस्तुएं नहीं, बल्कि चेतना का माध्यम हैं। जब इन्हें सशक्त कलात्मक प्रस्तुति के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है, तो वे न केवल दर्शकों का मनोरंजन करती हैं, बल्कि उन्हें प्रेरणा भी देती हैं। यह फिल्म एक उदाहरण है कि यदि कथा अच्छी हो, भावनाएं सच्ची हों और प्रस्तुति प्रामाणिक हो, तो वह अवश्य ही लोगों के हृदय में स्थान बना लेती है।
यदि महावतार नरसिम्हा को एक संकेतक माना जाए, तो यह स्पष्ट है कि दर्शक अब ‘सामग्री’ पर फोकस कर रहे हैं, न कि केवल चेहरों पर। उन्हें उन कहानियों की तलाश है जो उन्हें भावनात्मक, वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर स्पर्श करें। यह फिल्म उस शून्य को भरती है जिसे लंबे समय से अनदेखा किया गया था – भारतीय आत्मा की मांग। साथ ही, यह सफलता वैश्विक मंच पर भारतीय सांस्कृतिक आख्यानों की संभावनाओं को भी पुष्ट करती है। हॉलीवुड में जिस तरह से ग्रीक, रोमन, और नॉर्स मिथोलॉजी पर फिल्में बनी हैं, उसी तरह अब भारतीय परंपराओं के कथा साहित्य पर भी एक अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति सुनिश्चित हो सकती है।
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(Udaipur Kiran) / डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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