New Delhi, 3 अक्टूबर . हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई सिर्फ बंदूकों और तलवारों से नहीं लड़ी गई थी. यह एक ऐसी जंग थी, जिसमें विचारों की धार, शब्दों की शक्ति और कलम की आग ने भी उतनी ही भूमिका निभाई, जितनी किसी रणभूमि के सिपाही ने निभाई. ऐसी ही एक साहसी और संवेदनशील सिपाही कस्तूरी बाई थीं.
कस्तूरी बाई सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि नारी शक्ति की मिसाल थीं, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी न समाज और न ही देशहित के लिए अपना समर्पण छोड़ा. उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र सेवा और समाज कल्याण के लिए समर्पित कर दिया.
कस्तूरी बाई का जन्म वर्ष 1892 में एक ऐसे परिवार में हुआ, जहां देशसेवा जीवन की प्राथमिक शिक्षा थी. पिता पंडित नंदलाल चतुर्वेदी और माता सुंदर बाई के साथ-साथ उनके बड़े भाई माखनलाल चतुर्वेदी खुद स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी स्तंभ थे. कस्तूरी बाई ने अपने बाल्यकाल में ही राष्ट्रीयता के बीज अपने अंतर्मन में बो लिए थे.
बचपन में ही उनका विवाह किशोरी लाल उपाध्याय से हो गया, लेकिन जीवन ने जल्द ही एक और कठिन परीक्षा ली. महज 21 वर्ष की अवस्था में वे विधवा हो गईं. उस समय उनके भाई माखनलाल चतुर्वेदी भी शारीरिक रूप से अस्वस्थ थे और उनकी पत्नी का निधन भी हो चुका था. ऐसे में दोनों भाई-बहन एक-दूसरे के संबल बनकर खंडवा में साथ रहने लगे.
1920 के दशक में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की हुंकार भरी, तो यह आवाज कस्तूरी बाई के हृदय को भी झकझोर गई. उन्होंने घर की चौखट पार कर समाज सेवा और राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभानी शुरू की. उन्होंने महिला संगठनों को संगठित किया और चरखा चलाने की कक्षाएं चलाईं. यह सब उस दौर में और एक महिला के लिए करना एक साहसिक कदम था.
1932 में खंडवा में जब उन्होंने एक जुलूस का नेतृत्व किया तो अंग्रेज Government ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें पहले चार महीने की सजा दी गई और फिर नागपुर की जेल में डाल दिया गया. यहीं उनकी मुलाकात सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी जानकी देवी बजाज से हुई. यह मिलन उनके विचारों को और दृढ़ता प्रदान करने वाला रहा. कस्तूरी बाई के भीतर की क्रांति और भी मुखर हो उठी.
कस्तूरी बाई सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं थीं, वे एक संवेदनशील कवयित्री भी थीं. उनकी कविताओं में वे पीड़ा, संघर्ष और उम्मीद की झलक थी, जो स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा थी. जेल से रिहा होने के बाद वे कुछ समय के लिए होशंगाबाद (अपनी ससुराल) गईं, क्योंकि उस समय उनके भाई माखनलाल चतुर्वेदी जेल में थे, लेकिन जहां भी रहीं, समाज सेवा का कार्य नहीं छोड़ा.
4 अक्टूबर, 1979 को उनका निधन हो गया. कस्तूरी बाई का जीवन सबको प्रेरित करता है कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, अगर इरादे मजबूत हों तो कोई भी राह मुश्किल नहीं होती.
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डीसीएच/वीसी
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