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यूनिवर्सिटी-कॉलेज कैंपसों में यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना छात्राओं के लिए कितना जोखिम भरा

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Rubaiyat Biswas सक्षम पोर्टल पर दी गई जानकारी के मुताबिक, साल 2022-23 में देश के 238 विश्वविद्यालयों से यौन उत्पीड़न की 378 शिकायतें दर्ज की गईं

"अगर बेटियाँ आवाज़ उठाती हैं तो समाज उन्हीं पर उँगली उठाता है. लोग कहते हैं, तुम्हारी बेटी ही ख़राब होगी. सिर्फ़ उसके बारे में ही ऐसा क्यों बोला जाता है? लेकिन फिर भी मेरी बेटी ने आवाज़ उठाई और मर गई. मेरी बेटी शेर की बेटी थी."

ये कहना है एक पिता का जिन्होंने कुछ दिन पहले ही अपनी 20 साल की बेटी खो दी है.

ओडिशा के बालासोर ज़िले के एक छोटे गाँव से आने वाले इस छात्रा के पिता का आरोप है कि कॉलेज में उसके साथ यौन उत्पीड़न हुआ.

छात्रा ने शिकायत की लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. इससे तंग आकर आख़िरकार उसने प्रिंसिपल के ऑफ़िस के बाहर ख़ुद को आग लगा ली. दो दिन बाद उसकी मौत हो गई.

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बालासोर हादसे के कुछ ही दिनों बाद, ओडिशा के ही संबलपुर में एक मामला सामने आया.

यहां एक छात्रा ने प्रोफ़ेसर पर यौन शोषण का आरोप लगाया था. प्रारंभिक जाँच के आधार पर प्रोफ़ेसर को गिरफ़्तार कर लिया गया है.

ऐसे मामले केवल ओडिशा तक सीमित नहीं हैं. हाल ही में कर्नाटक में एक घटना सामने आई.

इसमें एक निजी कॉलेज के दो लेक्चरर पर आरोप है कि उन्होंने छात्रा को नोट्स देने के बहाने बुलाया और बलात्कार किया.

यह यही नहीं रुका. आरोप है कि इस यौन हिंसा का वीडियो बनाकर उसे ब्लैकमेल किया गया. इस मामले में तीन लोगों की गिरफ़्तारी हुई.

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वहीं, आईआईटी मद्रास में एक 20 वर्षीय महिला इंटर्न की कैंटीन के एक कर्मचारी द्वारा कथित यौन उत्पीड़न की ख़बर भी आई. इस घटना में राष्ट्रीय महिला आयोग के हस्तक्षेप के बाद गिरफ़्तारी हुई.

ऐसी घटनाएँ ख़ास सोच की उपज दिखाई देती है. यह पितृसत्तात्मक सोच है. यानी, एक महिला को किसी भी तरीक़े से काबू में पाया जा सकता है.

इससे कई सवाल भी उठते हैं. जैसे- क्या कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्राएँ सुरक्षित हैं? अगर उनके साथ यौन उत्पीड़न की कोई घटना होती है तो उस पर क्या होता है? पुरुषों को यह विश्वास क्यों रहता है कि वे कुछ भी करेंगे और बच निकलेंगे?

इन्हीं सवालों के जवाब खोजने के लिए हमने कई विश्वविद्यालयों की छात्राओं और शिक्षकों से बात की और उनका अनुभव जाना.

छात्राएँ क्या कहती हैं? image BBC

यौन उत्पीड़न के मुद्दे पर ओडिशा के उत्कल विश्वविद्यालय की छात्रा अश्मिता पंडा का कहना है, "जब भी कोई लड़की शिकायत करती है तो उसके प्रति समाज का नज़रिया बदल जाता है. हम अपने माता-पिता से भी ऐसी बातें खुलकर नहीं कह पाते."

"अगर कह भी दें तो कई बार वही कहते हैं कि ऐसी शिकायतें नहीं करनी चाहिए. थोड़ा बर्दाश्त कर लो. नज़रअंदाज़ कर दो. इस तरह बात को टाल दिया जाता है. समाज की ये सोच बदलनी चाहिए."

दूसरी ओर, दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा अद्रिका ने बीबीसी हिन्दी से बातचीत में कहा, "हम कैंपस के अंदर फ़ेस्ट एंजॉय करने जाते हैं, तब भी सुरक्षित नहीं होते. क्लास में बैठते हैं, तब भी सुरक्षित नहीं होते क्योंकि कई बार हमें गंदी नज़रों से देखा जाता है.''

अद्रिका ने बताया, "छात्राओं की सुरक्षा के लिए बनी समितियाँ अक्सर सख़्त कार्रवाई नहीं करतीं. दिल्ली के किसी भी कॉलेज की किसी भी लड़की से बात कीजिए, लगभग यही अनुभव सामने आता है."

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पुरुषों को क्यों लगता है कि वे बच जाएँगे? image Rubaiyat Biswas ओडिशा महिला आयोग की पूर्व सदस्य नम्रता चड्ढा मानती हैं कि शिक्षण संस्थानों में कई छात्राएं चुपचाप शोषण सहती रहती हैं

ओडिशा महिला आयोग की पूर्व सदस्य नम्रता चड्ढा कहती हैं, "शिक्षकों को हमारे समाज में पूजा जाता है. शायद इसीलिए ये लोग बच जाते हैं. उन्हें ये पता होता है कि छात्र-छात्राओं का भविष्य उनके हाथ में है. वे कुछ भी कर सकते हैं.''

"यही नहीं, इन संस्थानों में पढ़ने वाले स्टूडेंट हमेशा एक बहती आबादी की तरह होते हैं. उन्हें कुछ सालों में निकल जाना होता है. दूसरी ओर, उनके ख़िलाफ़ मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना करने वालों की नौकरियाँ पक्की होती हैं. इसलिए ये डर ख़त्म हो जाता है."

बालासोर की घटना में जान गँवाने वाली छात्रा के पिता कहते हैं, "मेरी बेटी ने जिस व्यक्ति के ख़िलाफ़ शिकायत की थी, वह शिकायत के बाद भी उसी विभाग में पद पर बना रहा. उसे तुरंत दूसरे विभाग में ट्रांसफ़र किया जाना चाहिए था या छुट्टी पर भेजा जाना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.''

वह कहते हैं, "मेरी बेटी को डर रहा होगा कि अगर उसने कुछ और कहा या किया तो वही व्यक्ति उसे फ़ेल कर देगा. फिर भी उसने आवाज़ उठाई. अगर किसी के ख़िलाफ़ शिकायत आती है तो उसे तत्काल प्रभाव से उस पद से हटाया जाना चाहिए."

image BBC आवाज़ उठाने के कथित जोखिम

नम्रता चड्ढा कहती हैं, "यह सिर्फ़ दर्ज की गई शिकायतों की संख्या है. कितनी छात्राएँ चुपचाप यह सब सहती हैं, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. छोटे शहरों से आनेवाली लड़कियाँ एक सामाजिक पिंजरे से निकलकर कॉलेज आई होती हैं. उन्हें किसी भी हाल में अपनी पढ़ाई पूरी करनी होती है.''

उनकी राय है, ''अगर लड़कियों को कोई शोषित करता है और वे आवाज़ उठाएँगी तो माँ-बाप क्या कहेंगे- पढ़ाई छोड़ो और घर वापस आ जाओ. इसीलिए कॉलेज में उनके पास कोई विकल्प नहीं होता. अगर कोई प्रोफ़ेसर उन्हें परेशान करता है या यौन उत्पीड़न करता है तो उन्हें सहना पड़ता है. उसे लगता है कि अगर उसने आवाज़ उठाई तो उल्टे उसी की बदनामी होगी. उसके बारे में गॉसिप होगा. उसके चरित्र पर सवाल उठेंगे. इसी डर से लड़कियाँ चुप रह जाती हैं."

अद्रिका पश्चिम बंगाल के आसनसोल से आती हैं. उनका कहना है, "हम जैसी छोटे शहरों से आने वाली लड़कियों को हमेशा एक आसान शिकार समझा जाता है. हम अपनी सुरक्षा के लिए गुहार लगाते हैं तो कई बार हमें अनसुना कर दिया जाता है. यह डर हमारे भीतर बहुत गहराई तक बैठा हुआ है. यह डर सिर्फ़ हमारे अंदर नहीं होता, हमारे माता-पिता के भीतर भी होता है."

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अगर यौन उत्पीड़न की शिकायत होती है तो क्या होता है? image Rubaiyat Biswas 'सक्षम' नाम से छात्राओं और महिला शिक्षकों-कर्मचारियों के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का एक पोर्टल है. तस्वीर में- दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्टूडेंट अदिती

दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़ने वाली अदिती ने बताया, "अक्सर छात्राओं के साथ हुए बुरे बर्ताव को अनदेखा किया जाता है. हमारे साथ हुई घटना के प्रमाण माँगे जाते हैं. कोई कहता है कि वीडियो दिखाओ. तो क्या अगर घटना कैमरे के सामने हुई ही नहीं, वह घटना आप मानेंगे ही नहीं? उलटे इल्ज़ाम महिला पर लगेगा."

अदिती जेएनयू की आंतरिक शिकायत समिति में स्टूडेंट प्रतिनिधि भी हैं.

वह एक और अहम सवाल उठाती हैं, "हमें यह समझना चाहिए कि अगर एक लड़की हिम्मत करके शिकायत दर्ज कराती है तो और ऐसी कितनी लड़कियाँ होंगी जो प्रताड़ित होती होंगी. इन शिकायतों को गंभीरता से देखना चाहिए."

image BBC यौन उत्पीड़न और क़ानून छात्राओं का अनुभव क्या कहता है? image Rubaiyat Biswas साल 2013 में 'कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम', यानी पॉश एक्ट पारित हुआ. तस्वीर में- ओडिशा के पुरी की एक स्टूडेंट राखी स्वाइन

ओडिशा के पुरी में पढ़ने वाली छात्रा राखी स्वाइन कहती हैं, "मैं दो साल प्लस टू और फिर तीन साल ग्रेजुएशन कर रही थी. मुझे कभी नहीं पता चला कि हमारे कॉलेज में कोई आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) है."

वहीं, राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली अद्रिका बताती हैं, "अधिकतर लड़कियों को शिकायत कहाँ करनी है, यही मालूम नहीं होता. मैं पीएचडी की तैयारी कर रही हूँ लेकिन मुझे भी ठीक से पता नहीं कि हमारे विश्वविद्यालय में बनी आईसीसी का कार्यालय कहाँ है."

क्या आईसीसी ठीक से काम कर रही है? image Rubaiyat Biswas प्रोफ़ेसर रूपम कपूर का कहना है कि आईसीसी सभी शिकायतों पर निष्पक्ष कार्रवाई करती है

दिल्ली विश्वविद्यालय की आंतरिक शिकायत समिति की पीठासीन अधिकारी प्रोफ़ेसर रूपम कपूर का कहना है, "हम आईसीसी के पोस्टर पूरे विश्वविद्यालय में लगाते हैं, जागरूकता कार्यक्रम करते हैं और यूजीसी के दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं. आईसीसी सभी शिकायतों पर निष्पक्ष कार्रवाई करती है और जागरूकता फैलाना भी इसकी ज़िम्मेदारी है."

आईसीसी किस तरह काम करती है? इस सवाल का जवाब देते हुए अदिती ने कहा, ''हमारी व्यवस्था कहती है, "चलो, इस बार वार्निंग दे देते हैं. अगर किसी प्रोफ़ेसर का केस आता है तो ये लोग (समिति) सोचते हैं कि हम कैसे इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करें? इसलिए ऐसे मामलों में अक्सर सख़्त क़दम नहीं उठाए जाते."

दूसरी ओर, नम्रता चढ्ढा कहती हैं, "यूजीसी की गाइडलाइन्स लागू हुए 11 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन ज़मीनी हालात में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता. अगर आप भारत के ग्रामीण या छोटे कॉलेजों में देखेंगे तो पाएँगे कि वहाँ अब भी आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) का गठन नहीं हुआ है. इसके बारे में जागरूकता भी बेहद कम है."

छात्राओं पर ही सबूत का बोझ image Rubaiyat Biswas प्रोफ़ेसर मौसमी बसु का कहना है कि अगर लड़कियों को लड़ना है तो कब, कहाँ, किसने क्या किया- इन सभी चीज़ों का रिकॉर्ड रखना चाहिए

नम्रता चड्ढा का कहना है, "यही नहीं, महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे हर उत्पीड़न का पुख़्ता सबूत दें. चाहे वह अकेले में हुआ हो या डिजिटल माध्यम से.''

प्रोफ़ेसर मौसमी बसु भी कहती हैं, "छात्राओं को ख़ुद 'होमवर्क' करना पड़ता है.''

वह लड़कियों को सलाह देती हैं, ''उन्हें अगर लड़ना है तो कब, कहाँ, किसने क्या किया- इन सभी चीज़ों का रिकॉर्ड रखना चाहिए ताकि बाद में कोर्ट में पेश किया जा सके."

लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या हर छात्रा के लिए ऐसे मामलों में सबूत जुटा पाना मुमकिन है?

ट्रांसजेंडर छात्राओं का संघर्ष

अगर किसी ट्रांसजेंडर छात्रा के साथ यौन उत्पीड़न की घटना होती है तो इंसाफ़ के लिए उनका संघर्ष और भी मुश्किल हो जाता है.

मुंबई की एक ट्रांसजेंडर छात्रा रुशाली दिशा बीबीसी को बताती हैं कि कैंपस में एंट्री से पहले ही उन्हें सिक्योरिटी गार्ड द्वारा बार-बार टॉर्चर किया जाता है और कई तरह के सवालों का सामना करना पड़ता है.

वह कहती हैं, "गेट से ही टेंशन शुरू हो जाती है. क्लास रूम तक पहुँचना एक जंग जैसा होता है. यही नहीं, जब हम शिक्षा से जुड़ी बातें करती हैं तो सबसे पहले हमारा जेंडर देखा जाता है. हमारी बात नहीं."

बालासोर की घटना में अब तक क्या हुआ? image Rubaiyat Biswas छात्रा ने विभागाध्यक्ष पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाते हुए प्रशासन से मदद की गुहार लगाई थी

वापस ओडिशा लौटते हैं. बालासोर के फ़कीर मोहन कॉलेज मामले में छात्रा ने समिति के पुनर्गठन के एक दिन पहले यानी 30 जून को तत्कालीन प्रिंसिपल दिलीप घोष से शिकायत की थी.

जिस शिक्षक पर आरोप थे आईसीसी ने उसे क्लीन चिट दे दी थी.

आरोप है कि जब उस छात्रा ने शिकायत की तो कॉलेज प्रशासन ने उस पर ही उँगली उठा दी. उसके पिता बताते हैं, "प्रिंसिपल ने कहा कि रिपोर्ट तुम्हारे ख़िलाफ़ आई है. उससे प्रताड़ना का प्रूफ़ माँगा गया. अब आप बताओ कि कोई कैमरा लेकर बोलेगा कि मुझे 'फ़ेवर' दो?"

दूसरी ओर, कॉलेज के नवनियुक्त प्रिंसिपल फ़िरोज़ पाधी ने बीबीसी से कहा, "कॉलेज में इंटर्नल कमेटी थी. उस समिति में स्टूडेंट प्रतिनिधि नहीं थे. इसलिए एक जुलाई को इस समिति का पुनर्गठन किया गया. अब इसमें स्टूडेंट के तीन प्रतिनिधि हैं."

इस घटना के बाद दिलीप घोष और विभाग प्रमुख समीर साहू को निलंबित कर दिया गया है. हमने देखा कि कॉलेज के कैम्पस में आईसीसी के बारे में एक पोस्टर लगा था. छात्र -छात्राओं का दावा है कि यह पोस्टर घटना के बाद लगाया गया. पहले इसकी कोई जानकारी नहीं थी.

बीबीसी से बात करते हुए उस लड़की के पिता का दर्द छलक जाता है. वह कहते हैं, "मेरी बेटी को पीएचडी करके डॉक्टर बनना था. उसे मशहूर होना था... और आज देखिए, वह मशहूर हो गई."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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