'गांधी' एक ऐसी क्लासिक फ़िल्म है जिसकी चर्चा आज तक होती है. 1982 में जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई तो इसने सफलता के झंडे गाड़ दिए थे.
आठ ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली रिचर्ड एटनबरो की इस फ़िल्म में बेन किंग्सले ने गांधी का किरदार अदा किया था. लेकिन इस फ़िल्म में गांधी की आवाज़ बने पंकज कपूर.
गांधी फ़िल्म में काम करने का पंकज कपूर का सफ़र आसान नहीं था. इस फ़िल्म में काम करने की वजह से उन्हें अपनी नौकरी तक गंवानी पड़ी.
बीबीसी हिंदी के विशेष शो 'कहानी ज़िंदगी की' में इरफ़ान ने बात की अभिनेता पंकज कपूर से.
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गांधी फ़िल्म का हिस्सा कैसे बने पंकज कपूर?गांधी फ़िल्म के निर्देशक रिचर्ड एटनबरो की नज़र पंकज कपूर पर तब पड़ी, जब वह 'मुख्यमंत्री' नाम का नाटक कर रहे थे.
इस नाटक में वह मुख्यमंत्री के सेक्रेटरी का किरदार निभा रहे थे.
पंकज कपूर बताते हैं, "हम लोग मुख्यमंत्री नाम से एक नाटक कर रहे थे. उसमें मैंने मुख्यमंत्री के सेक्रेटरी का रोल किया था. मेरे ख़्याल में, मेरे जवानी के दिनों में मेरा चेहरा प्यारे लाल जी से मिलता होगा और ये रोल करते हुए मुझे रिचर्ड एटनबरो ने देखा. मेरी समझ में उन्होंने मुझे वहां से देखा होगा. अगले दिन मुझे बुलाया गया."
गांधी की आवाज़ कैसे बने पंकज कपूर
उन दिनों फ़िल्म गांधी के लिए आवाज़ की तलाश की जा रही थी. तभी पंकज कपूर को किसी ने बताया कि नटराज स्टूडियो में ऑडिशन चल रहा है. उस समय वो काम की तलाश में थे. उन्होंने नटराज स्टूडियो जाकर अपनी आवाज़ रिकॉर्ड कर दी.
उन्होंने कहा, "मैंने शेक्सपियर की दो लाइनें अंग्रेजी में बोल दीं जिससे रिचर्ड एटनबरो को ये समझ में आ जाए कि पढ़ा-लिखा आदमी है, थोड़ा बहुत नाटक जानता है. उसके बाद मुझे शॉर्टलिस्ट कर दिया गया."
"उन्होंने बीआर स्टूडियो में मुझे बुलाया और मुझसे एक सीन अंग्रेजी में डब करने के लिए कहा. वो बहुत मुश्किल दृश्य था. जहां पर गांधी जी फ़ास्टिंग कर रहे हैं और बड़ी मुश्किल से बोल पा रहे हैं. वो सीन उन्होंने मुझसे अंग्रेजी में डब करवाया. उन्होंने डब सुना और उसी वक़्त तय कर लिया कि ये डबिंग मैं ही करूंगा."
पंकज कपूर बताते हैं कि वो फ़िल्म गांधी के लिए डबिंग करने लगे. इस दौरान वह रोज़ाना 11 घंटे डबिंग करते थे. डबिंग के दौरान ही कई बार शब्दों को बदला जाता था.
उन्होंने आगे कहा, "ऊपर वाले की मेहरबानी थी. कहां से क्या आ गया और उन्होंने करवा भी दिया. उस वक्त, मैं 27 साल का था."
बीबीसी हिंदी से बातचीत में पंकज कपूर कहते हैं, "मेरे पास तब थियेटर की नौकरी थी. पहले उन्होंने मुझे गांधी फ़िल्म में काम करने की इजाज़त दी. जब मैंने काम करना शुरू कर दिया तो फिर कहा गया कि आप अगले शेड्यूल के लिए नहीं जा पाएंगे. फिर मैंने कहा कि मैंने तो कॉन्ट्रैक्ट आपके कहने पर ही साइन किया है. लेकिन फिर भी मेरी बात नहीं मानी गई और मुझे नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया."
थियेटर की नौकरी जाने के बाद पंकज कपूर ने दिल्ली से मुंबई का रुख़ किया.
वहां उनका साथ उनके दोस्त ओम पुरी ने दिया.
ओम पुरी ने उन्हें बताया कि श्याम बेनेगल 'आरोहण' नाम की फ़िल्म बना रहे हैं.
पंकज कपूर बताते हैं, "श्याम बेनेगल साहब ही एक ऐसे निर्देशक रहे हैं, जिनके ऑफ़िस में मैं गया और उनसे मिला और मुझे काम मिल गया. तो वहां से मेरा हिंदी फ़िल्मों का सिलसिला शुरू हुआ."
सिनेमा की दुनिया में कैसे आए पंकज कपूर?साल 1973 में जब पंकज कपूर ने 12वीं की परीक्षा पास की, तब उन्होंने एक बड़ा फ़ैसला लिया. वो फ़ैसला था अभिनेता बनने का.
जब उन्होंने अपनी मां से कहा कि वो बंबई जाकर अपना करियर शुरू करना चाहते हैं, तो उनकी मां की आंखों में आंसू आ गए. मां ने यह बात उनके पिता को बताई.
पिता का जवाब कुछ ऐसा था जिसने पंकज कपूर का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ा दिया. पंकज कपूर के पिता प्रोफे़सर थे.
उनके पिता का जवाब था, "मैं तो बहुत खुश हूं."
पंकज कपूर अपने पिता को याद करते हुए कहते हैं, "वह बहुत अद्भुत इंसान थे. मैंने अपनी ज़िंदगी में उन जैसा इंसान देखा नहीं है. उनका कहना था - आई एम प्राउड ऑफ़ माई सन, उसने तय कर लिया कि उसे क्या करना है."
वो कहते हैं कि तब उनके पिता के शब्द थे, "अगर सचमुच तुम्हारे अंदर टैलेंट है और तुम इस क्षेत्र में जाना चाहते हो, तो ज़रूर जाओ. लेकिन मैं एक शिक्षक हूं और मेरा मानना है कि जिस भी क्षेत्र में जाना चाहते हो, उसके लिए सही तालीम ज़रूरी है."
यही नहीं, उनके पिता ने ही उनके लिए खुद नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (एनएसडी) के बारे में पता किया और जब पंकज कपूर का दाख़िला एनएसडी में हुआ तो उनके पिता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.
पंकज कपूर के पिता ने बिना किसी शर्त, बिना किसी डर के उनके सपने को उड़ान दी.
सिनेमा की दुनिया में पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी अभिनय के धनी माने जाते हैं.
तीनों ने कॉमर्शियल सिनेमा के साथ-साथ आर्ट सिनेमा में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है. तीनों ही अभिनेताओं ने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से अभिनय के गुर सीखे हैं.
नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी दोनों अभिनेताओं को फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया इंस्टीट्यूट (एफ़टीआईआई) में दाखिला मिल गया था, लेकिन पंकज कपूर को एफ़टीआईआई में जाने का मौका नहीं मिला.
पंकज कपूर कहते हैं, "मुझे इसका कोई मलाल नहीं है, बल्कि मैं ऊपर वाले का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करता हूं. मैं अगर फ़िल्म इंस्टीट्यूट में गया होता तो मेरा एक्सपोजर अलग होता. मैं बड़ा खुश-क़िस्मत हूं कि मुझे एनएसडी में पढ़ने का मौका मिला."
"उस वक्त का जो स्टाफ़ था, उनकी सोहबत में मैंने अभिनय की दुनिया में चलना सीखा, जो कि बड़े सौभाग्य की बात है."
एनएसडी में जब उन्होंने दाख़िला लिया तब उनकी उम्र महज़ 19 साल थी.
पंकज कपूर का मानना है कि अभिनेता बनने के लिए जो तालीम उन्हें थियेटर में मिली, वो उनके लिए बहुत ज़्यादा ज़रूरी थी.
उन्होंने कहा, "नसीर साहब और ओम जी नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से पढ़कर एफ़टीआईआई गए थे. लेकिन मेरी तो अभी शुरुआत थी, मैं तो लुधियाना से उठकर आया था. मेरा प्रोफ़ेशनल काम की तरफ़ ज़ीरो एक्सपोजर था. ये दोनों फ़िल्म इंस्टीट्यूट में दाख़िला लेने से पहले ही मंझे हुए अभिनेता थे."
पंकज कपूर ने बताया कि एनएसडी में दाख़िले के दौरान उनकी उम्र कम थी, जिसकी वजह से उनके अंदर सीखने की ख़्वाहिश थी.
टीवी और सिनेमा की दुनिया'मक़बूल', 'मटरू की बिजली का मनडोला', 'एक डॉक्टर की मौत' जैसी फ़िल्मों में अपनी शानदार एक्टिंग के लिए पहचाने जाने वाले पंकज कपूर का कहना है कि वो अपनी शर्तों पर फ़िल्मों में काम करते हैं.
उन्होंने कहा, "पहले दिन से ही मैं ऐसा रहा हूं. मैंने बिना किसी बाउंड स्क्रिप्ट के किसी के साथ काम नहीं किया है. इस वजह से कई फ़िल्में भी छोड़ी हैं. अगर बाउंड स्क्रिप्ट नहीं है तो मुझे समझ ही नहीं आता कि मुझे क्या करना होगा."
"बहुत से लोग इस वजह से नाराज भी हुए. बहुत सारा काम भी छूट गया."
पंकज कपूर बताते हैं, "मेरा कोई पीआर नहीं है. कोई मेरा काम नहीं देखता है. सीधे निर्देशक मुझसे बात करते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि मैं नहीं चाहता था कि किसी के प्रभाव के तहत मेरा काम हो."
पंकज कपूर अपनी सफलता का श्रेय टीवी की दुनिया को देते हैं.
उन्होंने कहा, "हम लोग थियेटर से आए थे जिन्हें मुख्यधारा के सिनेमा में ज़्यादा चांस नहीं मिला. टीवी में शुरुआती दिनों में अच्छा काम हो रहा था. आप उस वक्त का टीवी देखें तो आपको मालूम चलेगा कि बहुत अच्छा काम हुआ था."
"उसका हिस्सा बनने में हमें बड़ी खुशी मिली. जिस तरह के किरदार आप निभाना चाहते थे, वैसे किरदार निभाने का मौका मिला."
पंकज कपूर 'ऑफ़िस ऑफ़िस,' 'मोहनदास बीए एलएलबी' जैसे टीवी शो के लिए जाने जाते हैं.

पंकज कपूर ने समय के साथ समाज में हो रहे बदलाव का भी ज़िक्र किया. उनका कहना है कि समय के साथ समाज में बदलाव होते रहते हैं.
उन्होंने कहा, "चीज़ें जैसी थीं, चीजें जैसी हैं, चीज़े वैसी नहीं रहेंगी. 60 साल पहले के दौर में टीवी नहीं था. अब इंटरनेट आ गया है. गूगल पर कोई सवाल करते हैं तो जवाब मिल जाता है. बदलाव तो आता ही है."
"जब तक एक व्यक्ति अपनी सोच को ठीक रखने की कोशिश करे तब तक समाज में बेहतरी की ओर जाने संभावना है. लेकिन कट्टरपंथ पर उतरे तो वो तकलीफ़देह है और उसके नतीज़े अच्छे नहीं होंगे."
पंकज कपूर कहते हैं, "कोई भी चीज़ जब अपने चरम पर पहुंच जाती है तो ख़त्म हो जाती है. उसका अपना एक वक़्त होता है. उसके बाद कुछ नया उसमें से निकलना होता है. ऐसा मेरा मानना है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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